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इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है…

anilarya
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ठण्ड गुजरने को है पर इस साल अभी तक बाजरे की रोटी नहीं खाई.गाँव में थे तो सर्दी शुरू होते ही रोजाना बाजरे की रोटी खाने को मिलती थी, गरमागरम. संग में कभी सरसों का साग, कभी चने का साग तो कभी उड़द की दाल.रोटी के ऊपर देशी घी की मोटी सी डली और गुड.बाजरे की खिचडी और बाजरे की रोटी का गुड मिला चूरमा भी कितना लजीज होता था…!!! गाँवबदर हो शहर आए तो मक्के की रोटी भी खाने को मिली, पर वो मजा कभी नहीं आया जो गाँव में आता था…जब तक घर में गैस का चूल्हा नहीं आया था तो मिट्टी के चूल्हे पर सिकी करारी रोटी मिलती थी.चौके में चूल्हे के सामने जमीन पर बैठकर तवे से उतरती गरमागरम रोटी खाने का मजा ही अलग था. माँ बनाती जाती और हम दोनों भाई खाते जाते, कभी छोटी बहन के साथ तो कभी पिताजी के साथ. कलई से चमके हुए पीतल के थाल में, जो हमारे होश सँभालते सँभालते स्टील की थाली बन गया और जब गैस का चूल्हा आ गया तो बाकी सब तो वही रहा पर रोटी की मिठास बदल गई. जो मीठापन लकड़ी की आग में चूल्हे पर सिकी रोटी में था वो गैस में कहाँ… मुझे याद नहीं कि माँ ने भी कभी अपने चौके में तवे से उतरती गरमागरम करारी बाजरे की रोटी खाई हो…! बाजरे की क्या गेहूं की रोटी भी नहीं खाई होगी…! उन्हें अपनी सुध कहाँ… घर की साज सँभाल और पिताजी व हम भाई बहनों को तवे से उतरती रोटी खिलाने में ही शायद उनका मन तृप्त हो जाता होगा…! और अब पत्नी भी तो कमोबेश उसी रूप में है…सबको गरम रोटी खिलाने के उल्लास में खुद कहाँ गरम खा पाती है…!!! और शायद इसीलिए जयशंकर प्रसाद जी ने कामायनी में लिखा है….
“इस अर्पण में कुछ और नहीं केवल उत्सर्ग छलकता है,
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल झलकता है।
“क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प-अश्रु जल से अपने –
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने।
नारी! तुम केवल श्रद्धा हो विश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-स्रोत सी बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।”

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